मूर्तियां तोड़ते-तोड़ते कहीं फिर 'पाकिस्तान' न बन जाए बांग्लादेश


अब से तकरीबन 53 साल पहले पूर्वी पाकिस्तान खत्म हो गया था. दुनिया के नक्शे पर वही इलाका बांग्लादेश के नाम से उभरा था. वहां के लोगों का मजहबी यकीन वही रहा. बस जिस कल्चर से दौर जुड़ा हुआ था उसे कायम रखा गया. लड़ाई भी इसी की थी. उस दौर के लोगों ने ये लड़ाई जीत ली. उनकी लड़ाई में हिंदुस्तान उनके साथ चट्टान की तरह खड़ा हुआ था. पाकिस्तान को हरा कर अलग बाग्लादेश बनाया. ये इतिहास है. वर्तमान ये है कि अलग देश बनने बाद भारत ने उससे बहुत गहरे रिश्ते कायम किए. अपने हिसाब से बांग्लादेश तरक्की भी करता रहा. ये अलग बात है कि शेख हसीना की हुकूमत में अंतिम दौर में मुल्क की इकॉनॉमी बिगड़ी. फिर भी जो कुछ अभी बांग्लादेश में किया जा रहा है उससे देश की माली हालत सुधरने की दिशा में जाती नहीं दिख रही. बल्कि जिस तरह की गतिविधियां दिख रही है उससे लग रहा है कि चीन, पाकिस्तान और अमेरिका अपने अपने उल्लू सीधा करने की खातिर हालात का फायदा उठा कर बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था को अंधेरे कुएं में धकेल देंगे.

मदद दी, दखल नहीं दिया
व्यापार के अलावा भारत बांग्लादेश को बिजली, इंफ्रास्ट्रक्चर की तमाम सुविधाएं देता रहा है. यहां बांग्लादेश में रोशन होने वाली बिजली का एक बड़ा हिस्सा भारत अपने तारों के जरिए वहां भेजता है. देश में अभी भी तमाम भारतीय परियोजनाएं चलती रही है. फिर भी भारत ने कभी बांग्लादेश के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देता रहा. बांग्लादेश की आजादी के बाद कई बार हालात ऐसे हुए कि वहीं के बहुत से प्रभावशाली लोग चाहते रहे कि भारत दखल देकर स्थिति सुधारे. लेकिन भारत ने तटस्थ रहने की अपनी नीति का पालन किया.

भलमनसाहत से शांति की अपील
अब वहां के उत्पाती कहे जा सकने वाले नागरिकों के एक हिस्से ने हिंदुओं पर हमले किए. उनके पूजास्थलों में तोड़ फोड़ की. फिर भी भारत सरकार और दूसरे प्रभावशाली समूहों ने बांग्लादेश के अंतरिम सरकार से वहां कानून व्यवस्था कायम करने की अपील भर की. सरकार ने अपने इस पड़ोसी को चेतावनी भी नहीं दी है. इसे भारत की भलमनसाहत के तौर ही देखना चाहिए.

अपने ही सम्मान की निशानी क्यों तोड़ रहे
अब बांग्लादेश में उन मूर्तियों को तोड़ने की खबरें भी आ रही है, जो मुल्क की मुक्ति संग्राम से जुड़ी थी. अचानक तालिबान बन मूर्तियां तोड़ने वालों को याद रखना चाहिए ये उनके अपने सम्मान की भी निशानी थी. आखिर उन्ही सैनिकों की बदौलत पूर्वी पाकिस्तान ने पाकिस्तान से जीत हासिल की थी. एक बार याद दिला देना ठीक होगा कि जनरल नियाजी ने 16 दिसंबर 1971 को भारतीय जनरल जगजीत सिंह के सामने 93 हजार सैनिकों के साथ हथियार डाले थे. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ये सबसे बड़े सैनिक समूह का समर्पण था. इसकी स्मृति में वहां बहुत सारी मूर्तियां बनाई गईं थी. उसे भी उत्पातियों ने तोड़ दिया.

बांग्लादेश में हमेशा से चीन की रुचि रही है
इन घटनाओं से लगने लगा है कि बांग्लादेश के हंगामे में चीन पाकिस्तान और अमेरिका जैसी ताकते शामिल हैं. सामरिक नजरिए से बांग्लादेश में ये तीनों अपनी पैठ कायम करना चाहते हैं. चीन इन्हीं मकसदों की खातिर वहां निवेश भी करता रहा है. हालांकि शेख हसीना की सरकार बेहतर कूटनीति से इससे निपटती रहीं और चीन से जरूरी फायदा भी हासिल करती रही.

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अब बांग्लादेश की जो सरकार है उसके सामने कानून व्यवस्था कायम करने की चुनौती है. साथ देश की अर्थव्यवस्था को उसे गति भी देनी है. वरना श्रीलंका की बदतर आर्थिक स्थिति को हम देख ही चुके हैं. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की हालत भी सबके सामने है. इस लिहाज से बांग्लादेश को अपने हित के लिए तालिबानी रास्ते से दूर हो जाना चाहिए. मूर्तियां तोड़ने और अल्पसंख्यकों पर हमले करने से किसी को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता.

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